कल बातचीत के
क्रम में सुनने को मिला कि राजेंद्र प्रसाद जो भारत के प्रथम राष्ट्रपति होने के
अलावा एक अच्छे खासे वकील भी थे, अपने एक मुव्वकिल के साथ नाव से गंगा नदी पार कर
रहे थे। मुव्वकिल अपने जमा किए तथ्यों को लगातार बताए रहा था और फिर यह प्रक्रिया
जब लगभग समाप्ति के कगार पर थी, हवा के एक तेज झोंके ने उन कागजातों पर कहर बरपा
दिया, कागजात मां गंगा की भेंट चढ़ गए। अब मुव्वकिल हैरान-परेशान, जिन
तथ्यों-सूचनाओं को जुटाने में उसने सालों लगा दिए, वो पवन देवता की अठखेलियों की बलि
चढ़ गए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद के चेहरे पर आश्वस्ति का भाव था। उन्होंने उसे
कागज-कलम लाने को कहकर चिंतामुक्त हो जाने को कहा... औऱ फिर क्या था रांजेद्र
बाबू सूचनाओं-तथ्यों को मुव्वकिल के बताए अनुसार उच्चरित करते रहे और मुव्वकिल
लिखता चला गया।
हालांकि मैंने
भी दो-एक कहानियां राजेंद्र बाबू के बारे में सुन रखी थी ... लेकिन उन सबमें सबसे
अव्वल तो यह था कि— संविधान लिखा जा रहा था, सैकड़ों चर्चित चेहरे
चर्चा में जुटे थे। महीनों तक काम चला, मगजमारी-माथापच्ची के बाद संविधान लिखा
गया। लेकिन संविधान लिखे जाने के बाद अचानक से कहीं खो गया, काफी ढूंढ़ा-ढ़ांढ़ी
के बाद भी हाथ न आया। सारे लोग माथा पकड़ कर बैठ गए। इतने महीनों और इतने लोगों की
मेहनत पर पानी फिरता दिखता रहा था। ऐसे में राजेंद्र बाबू ने इस राष्ट्रीय समस्या
से राष्ट्र को उबारा। उन्होंने हूबहू संविधान को उच्चरित कर पूरी संविधान-सभा की
मेहनत पर फिरते पानी को सोख लिया, न एक कोमा इधर, न एक कोमा उधर। खैर एक दूसरी
सुनी-सुनायी कहानी भी सुना ही दूं ... कहानी के मुताबिक वाकया कोलकाता के
प्रतिष्ठित प्रेसीडेसी कॉलेज में उनके पढ़ाई के दौरान का है। हुआ यूं कि परीक्षाएं
चल रही थी और किसी कारणवश रांजेद्र बाबू को परीक्षा हॉल पहुंचते-पहुंचते दो घंटे
की देर हो गयी। परीक्षा हॉल में घुसते ही मॉनीटरिंग करते अध्यापक ने उनसे कहा कि
क्या फायदा है अब एक्जाम देने का। राजेंद्र बाबू के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान तैर
गयी, फिर उन्होंने तंबाकू अपनी हथेली पर ठोका और फिर परीक्षा समाप्त होने से पांच
मिनट पहले ही तंबाकू चुभलाते हुए एक्जामिनेशन हॉल से बाहर निकल गए। अब कहानी
सुनाने वाले एक अल्पविराम लिया, अब उसके चेहरे पर उर्जा का ब्रॉडबैंडीय प्रवाह
साफ-साफ टपक रहा था... हमसे भी उसी अनुपात में जिज्ञासा की डिमांड करता हुआ। कहानी
के मुताबिक कॉपी चेक करने वाले एक्जामीनर ने उनकी परीक्षाकॉपी पर एक टिप्पणी दर्ज
की – एक्जामिनी इज बेटर देन इक्जामनर। कहानीकार का कहना था कि यह कॉपी अब भी कॉलेज
के डिस्प्ले बोर्ड पर है।
खैर कहानियां
केवल राजेंद्र बाबू के बारे में ही नही सुनी। लाल बहादुर शास्त्री के बारे में
सुना कि वो स्ट्रीट लाइट में पढ़ा करते थे। जब भी चश्मायुक्त उनकी तस्वीर नजर आती
तो लगता चश्मे के पीछे का अपराधी जरुर उसी स्ट्रीट लाइट से निकलने धुंधला
प्रकाश-प्रवाह होगा।खैर तमाम लोगों के बारे में तमाम कहानियां पढ़ी सुनी। ... और
मां बाप भी ऐसी कहानियां सुनाकर सालों तक अपने बच्चे को कोंचते और अक्सर ठुकाई भी
कर डालते।
खैर ये तो हुई
महापुरुषों की बात, मेरे एक बड़े भाई इंजिनयरिंग कॉलेज में थे और उस समय हम
बमुश्किल तीसरे-चौथे में होंगें। मम्मी को जब भी हमें पीटना होता तो उनका उल्लेख
बारंबार होता। देखो वो होस्टल में रहता है , क्लास वाले उसको पढ़ने नही देते,
परेशान करते हैं। उसे पढ़ाई से दूर करने के लिए उस जबरदस्ती फिल्म देखने पर मजबूर
करते है... ऐसे तमाम तरह के किस्से। मेरा उद्देशय उनके संघर्ष को कमतर आंकना नही
है, लेकिन आप ही बताइए कि किस होस्टल में ऐसी घटना-परिघटना नही होती।
बचपन से हमलोगों
ने न जाने कितने झूठ सुने होगें... और अक्सरहां बालपन में उसे सच भी मान बैठते
है। खैर बालपन को बख्श भी दे तो आप उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, रक्त-तंतुओं,
अस्थि-मज्जा तक में जो एक इनकी घुसपैठ हो जाती है, लगातार बनी-बहती रहती है। ...लेकिन इन निर्दोष झूठों को खारिज करने की इच्छा भी नही होती। जितनी बार सुनता हूं, दिमाग को रेस्ट देकर दिल को इस मोर्चे पर लगाता हूं। ऐसे ही न जाने कितने मिथक
है जो सच्चाई और तथ्यपरकता की कसौटी पर भले ही खरा न उतर पाएं लेकिन उनके
पॉस्टमॉर्टम से परहेज करने का मन करता है। ...और वैसे भी सच कौन जानना चाहता है
...कम से कम मैं तो नही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें