मंगलवार, 6 नवंबर 2012

`मेमोरी प्लस` वक्त की जरुरत है ...

सबसे पहले ही यह डिस्क्लेमर दे दूं कि न तो मैं मेमोरी प्लस का कोई ब्रैंड एंबेसेडर हूं और न ही मुझे पता है कि यह किस कंपनी का प्रोडक्ट है। सुनता-पढ़ता और विज्ञापनों में देखता आया हूं, इसलिए यहां मेमोरी प्लस का जिक्र किया है। वैसे आप कोई और भी मेमोरी एन्हांसिंग उत्पाद खाने-खिलाने (या फिर दूसरों को इसके खाने खिलाने की सलाह देने) के लिए स्वतंत्र है।

टीवी-अखबार से नजदीकी रिश्ता-नाता है इसलिए अक्सर ऐसे किसी प्रोडक्ट के इस्तेमाल की गुंजाइश या कहे तो जरुरत की आशंका बनी रहती है। आजकल या कहे तो बीते कई सालों से जब भी अखबार पलटता हूं या फिर चैनल चैंज करता हूं खुद को कंफ्यूज महसूस करता हूं। हमने औऱ आपने अक्सर किताबों में पढ़ा होगा कि भारत गांवों का देश है और बहुसंख्यक आबादी गांवों में रहती है। लेकिन यहां अखबार पलटिए, चैनल खंगालिए गांव तो कमोबेश गायब ही मिलता है। गांव अगर थोड़ा-बहुत कहीं बचा है तो वो भी दूरदर्शनी कोने में सिमटा-चिपटा है। वैसे भी अगर टीवी-अखबारों-बहसों में कहीं गांव मौजूद दिखा तो समझिए कि या तो जरुर किसी सिंचाई घोटाले या फिर जमीन घोटाले की बात हो रही होगी, उस पर भी स्टोरी का ट्रीटमेंट ऐसा कि मानो गांव योजना की शक्ल में दिल्ली-मुंबई के मंत्रालयों से निकला और घोटालों की शक्ल में फिर वापस दिल्ली-मुंबई में ही चक्कर काटने लगा। कुछ फाइलों में दफन हो गया और कुछ मॉलों-अपार्टमेंटों में, और फिर थोड़ा बहुत टीवी-अखबार की बहसों में ताकि सामाजिकता और सरोकार के थप्पे का पर्दा भी बना रह जाय। ...और वहां भी नेताओं और विशेषज्ञों से बात बाहर जा ही नही पाती, किसान-मजदूर की चर्चा होती है लेकिन उनके चेहरे नही होते और अगर गलती से हों भी तो आवाज गायब मिलती है।

अभी हाल में प्रकाश झा की चक्रव्यूह देखी, लेकिन वहां भी चक्रव्यूह के बंवडर के बीच चकरघिन्नी के माफिक कंपित होते किसानों-मजदूरों का चेहरा तो दिखा लेकिन आवाज सुनने को नही मिली। नक्सलियों-पुलिस-कॉरपोरेट के अलावा शायद ही किसी के हिस्से में कोई डायलॉग आया हो।

पूरे देश की खबर देने का दावा करने वाले तमाम राष्ट्रीय चैनलों पर अवतरित होने वाले चेहरों को उंगलियों पर गिना जा सकता हैं। वही गांधी परिवार, आडवाणी-गडकरी-मोदी, मुलायम-मायावती और उनके घोषित-अघोषित प्रवक्ता और घोषित-अघोषित विरोधी। चैनलों पर तालिबान-स्वात, ओबामा-रोमनी-सैंडी की खबरें तो खूब दिख जाएंगी, लेकिन दंतेवाड़ा-गढ़चिरौली या तो गायब मिलेगा या फिर घिसे-पिटे फुटेज को ही महीनों तक दोहराया-तिहराया जाता रहेगा।

वैसे करप्शन के इसी ठेलमठाल वाले जमाने में जबकि तमाम आकार-प्रकार के करप्शन `तमसो मां ज्योतिर्गमयउच्चरित करते हुए एक दूसरे से गुत्थमगुत्था है तो मेमोरी प्लस और एनासिन तो इस वक्त की अनिवार्य आवश्यकता ही बन जाती है। अब आप ही देखिए बीते दो-तीन सालों से एक मामला खत्म होता नही कि दूसरा उसके सर पर चढ़ा-धमका होता है। सीडब्ल्यूजी, टू जी, आदर्श जैसे घोटालों की बारीकियों में लोग उलझे ही थे कि लवासा और तमाम रिएल एस्टेट घोटाले नमूदार होने लगे। घोटालो-घपलों से ऐसे में माथा बजबजाने लगा है... और आप ही बताइए लोग किस-किस को और किन-किन चीजों को याद करे। वैसे भी सुशील शिंदे कोलगेट पर प्रतिक्रिया देते हुए कह चुके है कि बोफोर्स की तरह इसे भी भूल जाएगी जनता।

पोस्ट-स्क्रिप्ट-- सालों पहले दिल्ली में बेरसराय अपने चाचा जी से मिलने जाना हुआ। संयोगवश चाचाजी तो कमरे पर नही थे, लेकिन उनका रुम पार्टनर मौजूद था। चेहरा जाना-पहचाना लग रहा था, लेकिन कहीं मिले हो इसकी गुंजाइश कम ही थी। आखिर दिल्ली आए हुए कुछ ही दिन हुए थे। रह-रह उनके चेहरे पर नजर चली जाती, आखिर कहां देखा हैं मैने इन्हें। काफी समय तक दिमाग को झकझोरने के बाद भी चेहरा पकड़ में न आया। उनके रुम पार्टनर भी इस बात को ताड़ चुके थे। उन्होंने कहा कि लगता है आपको मेमोरी प्लस की जरुरत है। इतना सुनते ही दिमाग पर लगा ताला खटाक से खुल गया। अरे इनका ही चेहरे तो द हिंदू अखबार के क्लासिफाइड सेक्शन में मेमोरी प्लस के डब्बे के साथ अपीयर होता है। इस बात का एलान करते हुए कि- पहले मुझे कुछ भी याद नही रहता, मेरा खुद पर भरोसा उठ गया था, मेरा आत्मविश्वास डगमगाने लगा था, फिर एक दोस्त की सलाह पर मैने इसका सेवन किया, अब मैं दुगुने उत्साह के साथ तैयारी कर रहा हूं दी। शायद उनका नाम सुनील जैन था, एकदम कंफर्म नही कह सकता। ऐसे में आप मुझे मेमोरी प्लस खाने की सलाह दे तो कोई आश्चर्य नही।

नोट- कृप्या अपने रिस्क पर किसी भी याद्दाशत बढ़ाउ उत्पाद का सेवन करें

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