गुरुवार, 8 नवंबर 2012

उस अपहरण का चश्मदीद हूं मैं... जिसकी कहीं कोई खबर नही...

इंद्रविहार से मुखर्जी नगर के रास्ते पर था। रात के करीब ग्यारह बज रहे थे। हवा में हल्की-हल्की ठंडक थी। दूसरे दिनों के मुकाबले मैनें ऑटो के बजाय पैदल चलना ही बेहतर समझा... और वैसे भी इस वक्त इस तरफ इक्का-दुक्का ही ऑटो नजर आते हैं, और वो भी अक्सर भरे हुए। सड़क पर चहल-पहल काफी कम हो चुकी थी और मुखर्जी नगर बाजार के शुरु होने के एन पहले वाले मोड़ पर मैं लगभग पहुंचने को था। एकाएक विपरीत दिशा से तेजी से सरपट भागती एक ऑटो महज कुछ मीटर दूर रुकी। इंजन की गुर्राहट अभी भी बनी हुई थी, ड्राइवर के हाथ अब भी हैंडल पर थे। ऑटो से दो लोग उतरे , बिजली की तेजी से बगल में तफरीह मार रहे कुत्ते को उन्होंने अपने लपेटे में लिया, ऑटो में बैठे तीसरे शख्स ने कुत्ते को पैरों के नीचे दबाया... किसी भी प्रतिरोध को कुचलने की नीयत से ...और फिर वो चलते बने। घटना कुल जमा बीस-पच्चीस सेंकेंड में आयी-गयी हो गयी। अब फिर वही शांति और वही ठंडी-ठंडी हवा , लेकिन दिमाग पर एक कुलबुलाहट जम गयी।

मेरे दिमाग पर कुत्ते की शक्ल उभर आयी और फिर उसके चेहरे पर के भाव। आखिर वो भौंका क्यों नही ...और फिर उठाइगिरी की इस पूरी प्रक्रिया में उसके अंग-प्रत्यंग असामान्य रुप से इतने शांत क्यों थे... कोई प्रतिरोध नही... मानो खामोशी के साथ उसने इसे अपनी नियती तय मान ली हो। फिर दिमाग में आशंकाओं-कुशंकाओं के अनगिनत रेशे आपस में एक-दूसरे से उलझते चले गए। पहला ख्याल तो यह आया कि हो सकता है इस अचानक के आदमीय आघात के लिए वो कुत्ता बिल्कुल भी तैयार न हो। फिर ख्याल आया कि कुत्ता की जगह कोई आदम होता तो शायद उसकी भी यही हालत होती। वैसे भी उसके भौंकने पर क्या होता, शायद कुछ कुत्ते जुट जाते। और फिर वो कुत्ते भी जुट कर क्या कर लेते ? आखिर रफ्तार ऑटो के कब्जे में थी। उसके भौं-भौं से उसके बचाव में किसी आदमी-औरत के जुटने की कोई गुंजाइश भी नही है, शायद यह वो जानता होगा। वैसे भी दिल्ली में हर साल सैकड़ों की तादाद में बच्चे गुम होते है, उनमें से कितनों की खबर वापस मिल पाती है। वैसे भी अक्सर हम ऐसे सुझावों और पोस्टरों से दो-चार होते है कि – आपके जान-माल की जिम्मेवारी आपकी है। दो दिनों से दिल्ली की सड़कों पर औरतों के हाल पर द हिंदू की एंकर स्टोरी पढ़ रहा हूं, और खैर बीच के पन्नों की तो पूछिए मत...। दिन की, रात की, घर की, घर के बाहर की... सिक्योरिटी की श्योरिटी कहीं भी नही दिखती... और हां अनजाने चेहरे और जाने-पहचाने चेहरे दोनों ही इस मामले में एक दूसरे को टक्कर देते दिखते हैं।

खैर फिर लगा कि आखिर कुत्ते इनके निशाने पर क्यूं ? मन में तमाम तरह के ख्यालों ने घर करना शुरु कर दिया। अक्सर लोगों को कहते सुना है कि उत्तर-पूर्व और खासकर नागा लोग जहां रहते हैं, उनके मुहल्ले के कुत्तों पर जान की आफत बन जाती है। मेरे कई मित्र उत्तर-पूर्व के हैं और मैनें कई बार उनसे पूछा भी और यह भी एक सालों साल चलने वाली कहानी ही निकली, जिसकी जड़ में पीछे तथ्यों की बजाय पूर्वाग्रही मानसिकता निकली। अक्सर जब भी चुनाव होता था और पारा- मिलिट्री का पहरा लगाया जाता तो सुनने को मिलता कि फलां गावं में नागा बटालियन ठहरी और कुत्तों का कत्लेआम हो गया। हालांकि सब अलां गाव- फलां गाव का जिक्र करते, ऑथेंटिसिटी सिरे से गायब रहती। खैर इस मामले में इतना तो साफ था कि न तो ऑटो का ड्रायवर और न ही बाकी के तीन लोग दूर-दूर तक कहीं से भी उत्तर-पूर्व के हों। उन चारों शख्सों की शक्लो-सूरत और संरचनात्मक बनावट-बुनावट उनके उत्तर भारतीय होने की गवाही दे रही थी।

फिर ख्याल आया कि हो सकता है क्लिनिकल ट्रायल के लिए बेचारे को पकड़ लिया गया हो। अक्सर सुनने को मिलता है कि दवाओं के परीक्षण के लिहाज से भारत बड़ी प्रयोगभूमि के रुप में विश्वपटल पर उभर कर सामने आया है।... और फिर इंसानों पर जब मनमाने तरीके से एक्सपरिमेंट-ट्रायल हो रहे हों तो फिर इन कुत्तों की क्या बिसात और तिस पर सड़कों पर के...। दो घटनाएं एकाएक दिमाग की नसों में घुस गयी... नसें फूलनें लगी। पहला कि आंध्रप्रदेश में महिलाओं पर गर्भाशय के कैंसर से संबंधित दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल की और दूसरा कॉमनवेल्थ खेलों को चमक देने के लिए सड़कों-स्टेशनों पर रहने को मजबूर लोगों को दिल्ली के बाहर ले जाकर छोड़ देने की। लगा जब इंसानों की जान यहां इतनी सस्ती है तो फिर कुत्तों की क्या और क्यों डिमांड ?

फिर अचानक करीब सवा दर्जन भर साल पहले की याद अचानक से दिमाग में तैर गयी। हुआ यूं था कि खेल-खेल में मुहल्ले के कुत्ते ने खेल भावना का परित्याग कर दिया। मेरा पैर उस कुत्ते की दांतों की जद में आ गया। ऐसे में सलाहों की बाढ़ आ गयी। जड़ी सुंघाए जाने से लेकर एक प्रख्यात चमत्कारी बाबा के द्वारा पीठ पर थाल सटाने तक की। फिर मोटे-मोटे निड्ल वाले सुइओं के अपने दर्दनाक अनुभवों से भी तीन-चार लोगों ने मेरा परिचय करवाया। इन सुझावों के बीच एक सुझाव यह भी आया कि सात दिनों तक उस कुत्ते पर नजर रखिए । यदि कुत्ते का देहावसान न हो या फिर उसके आचरण में कोई बदलाव न हो तो मानिए कि आप सुरक्षित है। मुझे लगा शायद इन चारों में से कोई या फिर इनका कोई सगा-संबंधी शायद उस कुत्ते के नख-दंत का शिकार हुआ हो औऱ ऐसे में किसी ने उसको भी ऐसी ही सलाह दी हो। फिर लगा कि दिल्ली कोई दलसिंहसराय तो है नही... और फिर सरकारी अस्पतालों में यहां इंजेक्शन भी मुफ्त उपलब्ध है। (वैसे सभी सुझावों को दरकिनार कर मैने डॉक्टर के शरण में ही जाने में भलाई समझी और संयोगवश पतले निड्ल वाली इंजेक्शन से ही पाला पड़ा।)

इसके अलावा और भी कई आंशकाओं को टटोला-खंगाला, लेकिन जिस आंशका का दावा सबसे ज्यादा दमदार लगा वो बताता हूं।... हालांकि बता दूं कि मैं कोई कुत्तों का एक्सपर्ट नही हूं कि उसकी आंखों में झांककर उसके पितृपक्ष और मातृपक्ष की सात पीढ़ियों या फिर उसके खानदान को उलट-पलट कर रख दूं , लेकिन इस बात की पूरी संभावना बनती दिखी कि कुत्ता जरुर चालू अर्थों में खानदानी रहा होगा, यानि ब्ल्यू ब्लड। हालांकि आप भी इस पर सहमत हो यह जरुरी नही। हमने अक्सर बड़े-बुजुर्गों को कुत्ते के साथ टहलता या उन्हें टहलाता देखा होगा और आए दिन बड़े-बुजुर्गों पर हमले की खबरों को भी देखा-पढ़ा है। मुझे लगा कि ऐसी ही किसी घटना और छीना-झपटी में यह कुत्ता पट्टे के बाहर की आवारा दुनिया में भटक आया होगा, और फिर ऑटो में मौजूद उन चारों शख्स में से किसी की पारखी नजर पर उसका खानदान खटक गया होगा। अब आप और हम जानते ही है कि दुनिया पैसों की है, ऐसे में किसी पैसेवाले को कुछ पैसे की एवज में उसने उसकी गर्दन थमा दी हो।

1 टिप्पणी:

  1. जिसको श्वान से पाला पड़ चुका होता, एक दिन स्वान प्रेम पर विमर्श जरुर करता है। सीधी तरह से ये बताने के लिए कि तुमको कुत्ता हपक चूका है- लम्बी भूमिका बांध दिए गुरु।

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