शनिवार, 10 नवंबर 2012

लगभग 29 बरस का जीभ ... चटकारी-खट्टकारी यादें ...

क्वालालम्पुर के इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज से बुलावा आया था। आने-जाने के बिजनेस क्लास टिकट के साथ एक फॉर्म भी भरने को था। डायटरी रिस्ट्रीक्शन यानि खाने में मनाही की वस्तु के आगे मैने बीफ भर दिया, प्रीफरेंस का कॉलम खाली ही छोड़ दिया। वैसे भी क्या भरता ? चावल-दाल-चोखा , रोटी-सब्जी और कभी-कभार मटन-चिकेन-अंडा के अलावा कुछेक ही चीजें है जो मुझे अच्छी लगती है। कह सकते है कि एक तो इनकी आदत सी हो गयी है और दूसरा कि अब मैं इन आदतों का लगभग गुलाम हो गया हूं। नेपाल के अलावा किसी विदेशी धरती से अब तक मेरा पाला नही पड़ा था , ऐसे में खान-पास से जुड़े जोखिमों के बारे में अंदाजा भी नही था। वैसे भी खाने का जुड़ाव मेरे मामले में पेट से ज्यादा मन से ही अधिक रहा है।

पालम हवाई अड्डे से उड़ान भरने के साथ ही खाने और पीने की तमाम सामग्रियां सामने से आने-जाने लगी। एक नमकीन सी दिखने वाली चीज लगभग मैं अपनी जीभ को समर्पित ही करने वाला था कि कहीं से पोर्क शब्द उछल कर मेरे कानों में छलांग लगाता हुआ पहुंचा। दिमाग को मानो लकवा मार गया और जीभ से उत्सर्जित तरल एकबारगी अंतर्ध्यान हो गया। खैर आगे के करीब 5-6 दिन कमोबेश ऐसे ही रहे। आइटीनरी में कमोबेश हर सुबह-शाम क्वालालम्पुर के मशहूर पांच सितारा होटलों और मशहूर भोजनालयों में भोजन कराए जाने का इंतजाम था , लेकिन अक्सर जूस, ब्रेड और अंडे से ही काम चलाना पड़ता। संयोगवश मंडेरिन ओरियंटल ,जहां हमारे रहने का इंतजाम था , उनके मेन्यू में स्टीमड राइस और दाल तड़का का इंतजाम था ,जो अक्सर पूरे दिन की मीटिंग , सेमीनार और भ्रमण के बाद शरीर को संभाले रहता। खैर तीन-चार दिनों के बाद पेट को तब सुकून मिला जब वहां एक दक्षिण भारतीय रेस्तरां में राइस-रसम खाने को मिला और वो भी देशी स्टायल में, वरना तो पांच सितारा होटलों में खाने के साथ तमाम लटके-झटकों से दो चार होना पड़ता ।मलेशिया में तमिलों की आबादी अच्छी-खासी है, और लगातार उनकी संख्या में इजाफा भी हो रहा है। जब नई नवेली खुबसूरत राजधानी पुत्राजाया में हमलोगों की मुलाकात मलेशियाई प्रधानमंत्री से हुई तो पता चला कि हजारों की संख्या में ऐसे तमिल यहां है जो वीजा की वैद्यता खत्म होने के बाद भी अभी भी मलेशिया में हैं ।एक बार मैक्डोनाल्ड भी गया और बर्गर-फ्रैंच फ्राइ के टेबल पर आगमन के साथ ही न जाने कहां से कहीं पढ़ा याद आ गया कि भारत को छोड़कर अन्य जगहों पर मैकडोनाल्ड वाले बीफ से जुड़े किसी प्रोडक्ट का इस्तेमाल करते है। बर्गर-फ्रैंच फ्राय को टेबल पर ही छोड़कर खिसकना पड़ा। खैर इस मलेशियन ट्रैजेडी में मुझे दिल्ली और खासकर दलसिंहसराय की याद अक्सर आती। ऐसे में जबकि वजन खतरे के निशान से थोड़ा ही ऊपर है खाने में थोड़ा भी झोल-झाल खूब अखरता है।

अब जबकि जीभ-उदर और बाकी शरीर के साथ मैं 29 साल की दहलीज पर हूं और लगभग आधी उम्र निकल चुकी है गाहे-बेगाहे इस जीभ को दलसिंहसराय से दूर होना खटकता है। मदन का समोसा-सिंघारा और आलू की चटनी, चमन लाल का रसकदम, परदेशी झाल-मूढ़ी, लक्ष्मी कचड़ीवाले का आलूदम , बोढ़न का भूंजा और महीने-दो महीने पर समस्तीपुर मार्केट से आयातित समोसे की याद जीभ पर अविरल तरल प्रवाह पैदा करती है।

सबसे पहले बताता चलूं कि रसकदम दलसिंहसराय की खासियत है । कवरेज के सिलसिले में खूब घूमना हुआ है, लेकिन रसकदम की उपस्थिति को कहीं और दर्ज कर पाने में असफल ही रहा हूं । ऐसे में तिरुपति के लड्डू, धारवाड़ का पेडा और हैदराबादी हलीम की तरह दलसिंहसराय के रसकदम का ज्योग्राफिकल इंडिकेशन के रुप में पंजीकृत होने का मेरे लिहाज प्रॉपर हक बनता है। छेना के ऊपर शुद्ध खोए की मोटी परत और फिर उस पर लिपटा पोस्ता दाना यानि तीन स्तरों पर निर्मित इस मिष्टान्न के अद्भुत स्वाद ने न जाने कितने जीभों को जीवंत किया है। हालांकि दलसिंहसराय में रसकदम कई दुकानों पर सजे मिल जाएंगे, लेकिन चमनलाल की चमक के सामने सब फीके है। रसकदम का विशुद्ध अनुभव चाहिए तो आपको कम से कम 24 घंटे पहले ऑर्डर करना पड़ेगा। आगमन से पहले ही उनकी विदाई का मुहुर्त निकल चुका होता है।

वैसे लक्ष्मी की दुकान के आलूदम ने भी जीभ को सिसकारी लेने पर कम मजबूर नही किया है। छोटे-छोटे उबले आलू पर मिर्च पाउडर और मसाले की परत अलौकिक स्वाद से भरपूर होती। कई लोगों को सुबह-सुबह रोटी साथ ले जाकर आलूदम के साथ चटकारे लगाते देखा। मसाले का संतुलित मिश्रण और मिर्च के तीखेपन के चार्म से बच पाना संभव भी नही था। वैसे बोढ़न के आलूदम में भी खासा दम था। स्कूल में टिफीन की छुट्टी में हम भागकर सीधे उसी की रेहड़ी पर धावा बोलते । हालांकि मसाले में उतना तीखापन नही होता , लेकिन स्वाद लाजवाब होता।

अब के जमाने में स्वदेशी क्या और परदेशी क्या , ग्लोबलाइजेशन और लिबरलाइजेशन का जमाना जो है , लेकिन परदेशी के नाम पर हमारे यहां कुछ था तो वो था- परदेशी झाल-मूढ़ी। झाल-मूढ़ी के मार्केट में परदेशी झालमूढ़ी ने दलसिंहसराय और आस-पास के इलाके में कोई कम क्रांति नही मचाई। नीबूं का अचार, करारी-तीखी मिर्च , मूंगफली, झिल्ली और तमाम प्रकार के मसालों के साथ जब झाल-मूढ़ी तैयार हो रही होती तो परदेशी झाल-मूढ़ी के ठेले पर भीड़ खिंचने लगती। कह सकते है कि झाल-मूढ़ी के स्टैंडर्डाइजेशन में परदेशी की भूमिका हमारे इलाके में एतिहासिक रही है। अगल-बगल के इलाकों में जब भी लोग जाते तो झाल-मूढ़ी सेवन के समय सामने वाले पर कटाक्ष करते नही चूकते- अरे इसमें परदेशी वाली बात कहां। वैसे चुनौती परदेशी को भी कोई कम नही मिली , मुकाबले में स्वदेशी झाल-मूढ़ी के ठेले ने ताल ठोका , लेकिन परदेशी के सामने जो भी आया टिक नही सका। आरएसएस के कैडरों को भी अक्सर परदेशी झाल-मूढ़ी को प्रीफर करता पाया।

औऱ फिर मदन-रतन का समोसा और उसके साथ मिलने वाली आलू की चटनी की भी याद कोई कम नही आती। इस 29 साला सफर में आलू की चटनी की जगह मैदे से बनी लाल चटनी खाने का दुख भी झेलने को भी मिला। लेकिन क्या किया जाय समोसा मजबूरी जो ठहरी और जमाने की चाल से चाल तो मिलानी ही पड़ेगी न।


वैसे दो और चीजों की याद किए हुए बिना बात अधूरी ही रह जाएगी। हमारे ही मोहल्ले के सुधो हलवाई के हाथों का बना स्वादिष्ट पेड़ा और बंका जी की बिस्किट फैक्ट्री का बॉबी बिस्कुट। मंगलवार को जब सवा रुपया हनुमान जी के प्रसाद के लिए हाथ में आता तो बाकि सलाहों की परवाह के विपरीत पेड़ा ही मेरी पहली पसंद होती।

यादें और भी है , लेकिन उनकी चर्चा अगली बार।

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