गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

हमें फिर से इसे गढ़ना होगा ...

आंखे नदी हो जाए
भीतर के रक्त और पानी को समेट बहा ले जाए
और जो भी गंदला तरल हो

ह्रदय तप्त हो जाए ... इतना कि...
इसकी दीवारें आपस में रगड़ खाकर
खुद को भभका-जला उठे

नथुने फैल जाएं
अंतड़ियों-फेफड़ों में अटकी हवा
उगलकर बाहर कर दे

हाथें हथौड़ा हो जाएं
और बाकी का शरीर
सर से पांव तक का 
हो जाए पाषाण में परिणत
हथौड़े की चोट 
इस पाषाण को चटकाए 
चूर्ण में तब्दील कर दे
वैसे भी आखिर बचा क्या है ?

जिन भी मूल तत्वों से यह शरीर और मन बना है
वो सब अपने-अपने स्त्रोत को वापस हो जाएं
हमें फिर से इसे गढ़ना होगा ...

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