रविवार, 30 जून 2013

अचंभित कर देने वाली अद्भुत शख्सियत ...

आप दो दर्जन से भी ज्यादा सालों से जेल में हो । घर-परिवार से दूर, पत्थरों के बीच पत्थरों को तोड़ते हुए। और ऐसे में जेलर महोदय अचानक एक दिन आपकी आजादी का फरमान जारी कर दें। क्या करेंगें आप ? क्या मनोस्थिति होगी आपकी ? ... शायद रक्त की रफ्तार आपके दिमागी तंतुओं को तिनके के माफिक बहा ले जाए, दिल इतना तेज धड़के कि स्थिर हो जाए सदा के लिए , हाथ-पैर सुन्न हो जाय ... लेकिन संघर्षों में तपे उस शख्स के तंतु, उसकी अस्थि-मज्जा, उसके दिल-दिमाग की कोशिकाएं किसी और ही तत्व की बनी थी। उस कैदी का जवाब था एक हफ्ते की नोटिस तो जरुरी है ... पार्टी और परिवार को इसके लिए तैयार होने के लिए। साल 1990 का था , केपटाउन जेल के भीतर दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति डी क्लार्क नेल्सन मंडेला से उनकी रिहाई के बावत मुलाकात को आए थे। मंडेला के इस जवाब के लिए क्लार्क महोदय तैयार नही थे (और आखिर कोई ऐसे जवाब की कल्पना भी कैसे कर सकता है भला ?)। दरअसल उनका सामना इंसानी सभ्यता की अद्भुत शख्सियतो में से एक से था, एक ऐसी एतिहासिक घटना से, जिसमें इतिहास का प्रवाह थामकर वर्तमान को खड़ा करने की कूवत थी । क्लार्क महोदय ने फिर अपने सहयोगियों से विमर्श किया और आखिरकार मंडेला के अनुरोध को ठुकरा दिया गया।

साल 1994 ... ब्लैक एंड व्हाइट सलोरा टीवी के मेरे घर में घुसे महज कुछ ही महीने हुए थे। उन दिनों खेती-बाड़ी के ज्ञान से लेकर देश-दुनिया के समाचार को परिवार का हर सदस्य भक्ति-भाव से ग्रहण करता। उन्हीं दिनों मंडेला साहब से हमारा प्रथम परिचय हुआ। दूरदर्शन से मंडेला साहब के शपथ ग्रहण का शायद सीधा प्रसारण हो रहा था। अपनी चंचला स्वभाव के लिए हमारे इलाके में मशहूर बिजली भी उस दिन ठिठक गयी, आयी और अपनी आदत के विपरीत कुछ मिनटों के बाद जाने से मुकर गयी। हमने वो प्रसारण पूरा-पूरा देखा। ...फिर तो दक्षिण अफ्रीका में मशहूर रेनबो कोलिशन के निर्माण ने दुनिया को चकित कर दिया। नस्ली हिंसा और घृणा की कठोरता को उनकी कोमल शख्सियत ने पिघलाकर रख दिया। कुछ महीने पहले उनके जीवन पर बनी फिल्म इनविक्टस देखी। सचमुच कमाल के शख्स हैं वो- दुख, प्रताड़णा के बाद भी क्षमा की अद्भुत शक्ति से लैस। मंडेला की कहानी , मॉर्गन फ्रीमैन की अदाकारी और फिर विलियम अर्नेस्ट हेनली की मशहूर कविता इनविक्टस की पंक्तियां  " इन द फेल क्लच ऑफ सरकमस्टांस, आइ हैव नॉट विन्स नॉर क्रायड अलाउड. अंडर द ब्लजिऑनिंग्स ऑफ चांस , माय हेड इज ब्लडी बट अनबॉड ................आइ एम द कैप्टन ऑफ माय हेड , आइ एम द कैप्टन ऑफ माइ सोल " । फिल्म कब आंखों के रास्ते दिल-दिमाग पर काबिज हो जाती है , पता भी नही चलता।

प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन ने गांधी जी के बारे में कहा था - 'आने वाली पीढ़ियां शायद ही इस बात का यकीन कर पाएं कि कभी धरती पर गांधी जैसा कोई शख्स भी पैदा हुआ था।हमने गांधी जी को नही देखा , लेकिन नेल्सन मंडेला की ओर निगाह जाती है तो गांधी जी का अक्स दिखता है। यदि अल्बर्ट आइंसटीन अभी जिंदा होते तो अपने इन शब्दों को दुहराने के लिए मजबूर जरुर होते... और कहते कि आने वाले पीढ़ियों के लिए नेल्सन मंडेला के होने पर यकीन करना न केवल मुश्किल बल्कि कमोबेश नामुमकिन भी होगा।




रविवार, 9 जून 2013

माथाटेक आज्ञापालन से बेहतर संघर्ष/सर-फुटौव्वल

स्टीवन ल्यूक्स की किताब `पावर : अ रेडिकल व्यू` की चर्चा करते हुए लेक्चरार ने हम सबसे एक सवाल पूछा – आपलोंगों ने प्रेमचंद का लिखा `ठाकुर का कुआं` पढ़ा है न ? पूरे क्लास से एक भी आवाज नही फूटी। अधिकांश ने नाम भी नही सुन रखा था। खैर चंद पंक्तियों में उन्होंने इस कहानी के निहितार्थ बताए। दलित स्त्री प्यास से तड़पते पति के लिए ठाकुर के कुएं से पानी लाने को रात के अंधेरे में बमुश्किल हिम्मत जुटाती है। लेकिन कुंए की मुंडेर पर डर की बजाय पाप-पुण्य का विचार हावी हो जाता है । मन के किसी कोने से पवित्रता की सत्ता भक्क से उछलकर और पूरी ताकत से तड़पते पति के चेहरे पर हावी हो गयी। उसे लगता है वो कहीं पाप तो नही कर रही ... और फिर वह दबे पांव वापस लौट आती है।

पावर शब्द के हिंदी समानार्थी शब्द एक की बजाय दो बताए उन्होंनें। दोनों एक दूसरे से अलग- शक्ति और सत्ता। पावर-शक्ति/सत्ता के तीन आयामों की चर्चा हुई। पावर के प्रथम आयाम बाहुबल और धमक के जोर पर निर्णय, पावर के द्वितिय आयाम में एजेंडा सेंटिंग के बरक्स निर्णय के बाद पावर के तीसरे आयाम के खतरनाक बिंदुओं पर चर्चा टिक गयी। तीसरे आयाम में पावर यानि सत्ता इस मायने में भी शक्ति से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि बाकी के उलट इसे डिटेक्ट करना आसान नही। दरअसल शक्ति के साथ पवित्रता जुड़कर सत्ता की शक्ल इख्तियार कर लेती है। अव्वल तो यहां मामला है कि रोगी ही खुद को रोगी मानने से इंकार कर दे। शक्ति में सवाल की उपस्थिति है, वाद-प्रतिवाद की गुंजाइश ... लेकिन सत्ता का सॉफिस्टिकेटेड मैकेनिज्म सवाल को पाप के तौर पर लेता है।

कोई भी स्वस्थ लोकतंत्र सवालों की बुनियाद पर ही खड़ा हो सकता है। विचारों की टकराहट और संघर्ष लोकतंत्र को कमजोर नही करते। तार्किकता,सम्मान और न्याय की बुनियाद पर ही परिवार, संगठन , समाज , देश बेहतर भविष्य को पा सकता है।बेहतर भविष्य के लिए किसी व्यक्ति, परिवार या संगठन तक सीमित नही हुआ जा सकता । किसी देहरी पर अनंत काल तक के लिए ठिठकना न केवल समस्या को गंभीर बनाएगा बल्कि बेहतर भविष्य के लिए रुकावटे पैदा करेगा।

ऐसे में जबकि खबरों में गोवा का झोलझाल , नेताओं के बीच वर्चस्व को लेकर संघर्ष को कठघरे में रखा जा रहा है तो यह सवाल अहम है इस संघर्ष,कंपीटीशन या सरफुटौव्वल (जो भी नाम दिया जाय, कहा जाय ) में गलत क्या है और कितना है? बाकियों से कितना बेहतर या बदतर है ? किसी व्यक्ति के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को लेकर लेकर सवाल उठ सकते है, जायज/जरुरी भी है कि वो देश की एकता, अकंडता और धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने में कितना सक्षम है ?... लेकिन प्रक्रियागत बात की जाय तो मेरे हिसाब से छद्म आम सहमति और माथाटेक परंपरा से कहीं बेहतर यह सरफुटौव्वल/संघर्ष है।

अंत में… गुण-अवगुण किसमें और कहां नही होते ? सवाल बेहतर और बदतर का है। सवाल और संघर्ष लोकतंत्र की जीवंतता के लिए जरुरी हैं।

शनिवार, 1 जून 2013

असमर्थता

तंत्रिका तंत्र के 
करोड़ों न्यूरॉनों के गुच्छों में
न जाने कौन सा गुच्छा
सुस्त हो गया है
या फिर सुप्त हो गया है
कि हंसी और हताशा 
दोनों ही हालातों को बयां करने में
चेहरा असमर्थ होता है

शरीर की भाव-भंगिमा
चेहरे का चाल-चलन
और मन के बीच का स्वाभाविक विद्युत-प्रवाह
समय के चक्रव्यूह में
अभिमन्यु बन चुका है

द्रोणाचार्य विपक्षी खेमे में है
अर्जुन को आवाज लगाई जा रही है।

कस्बा मेरे भीतर ...

कोई भी गली-नुक्कड़ हो या सड़क-मैदान ... दलसिंहसराय यानि मेरे कस्बे का हर कोना चौबीसों धंटा, बारहों पहर मेरे दिमाग पर नाचता रहता है । जीपीएस और ग्लोनास की जरुरत नही है ... आंखें बंदकर बता सकता हूं कि महावीर चौक से माड़वाड़ी धर्मशाला के रास्ते पर कितने मोड़ है... और घाट नवादा से गंजरोड तक के रास्ते में कितनी दूरी पर और किधर-किधर मुड़ना है। समय कितना लगेगा और कौन से चेहरे रेटिना पर किस कोण से प्रतिबिंब बनाएंगें ?

ढ़ाई दर्जन सालों से कस्बा और मैं दोनों कमोबेश साथ-साथ ही बढ़े हैं। कस्बा अब गांव से निकल शहर में घुस गया है और शहर है कि मेरे भीतर के गांव के साथ ठेलमठाल में जुटा है। कस्बे की हर नई कच्ची-पक्की ईंट के साथ यादों की इमारत ने शक्ल ली है। हर बार जब भी जाता हूं, इसकी चौहद्दी का चक्कर लगाकर जानने की कोशिश करता हूं कि आखिर शहर कितना और किधर बढ़ा है ? कहां कौन सी मकान-दुकान उग आयी है और किधर हनुमान जी गदा लेकर अवतरित हुए हैं। जब भी जाता हूं , ताजातरीन चौहद्दी, नए चेहरे और पुराने होते चेहरे खुद ब खुद मानों दिमाग पर चिपक जाते हैं।

जब बदलाव को महसूसने की बात चल ही रही है तो फिर कोर्ट-कंपाउड वाले हनुमान जी का जिक्र करता चलूं। मेरे जमीन की चहारदीवारी बन रही थी और इस सिलसिले में अक्सर ब्लॉक ऑफिस के रास्ते से गुजरना होता। गाहे-बेगाहे चलते-चलते मैं भी उन दिनों अन्य राहगीरों की तरह अपना प्रणाम इनकी ओर उछाल दिया करता। हनुमानजी उन दिनों एक कोने में एकाकी और उपेक्षित जीवन गुजर-बसर करते मालूम होते। वक्त बदला और कोर्ट की इमारतों के निर्माण के साथ इन हनुमान जी का भविष्य दमकने लगा। अभी बकायदा सर पर छत और नित नवीन वस्त्र धारण करते इन हनुमान जी के अतीत की कल्पना भी दलसिंहसराय के नए-नवेलों के लिए मुमकिन नही। टूटी गदा और धूप-बारिश-अंधड़ की मार , गंदले कपड़े और जंग खायी जंजीर से बंधी लकड़ी की दान-पेटी जिसमें भूले-भटके कोई अठन्नी-चवन्नी डाल दिया करता था ... मानो उन लंका-निवासियों के श्राप का असर हो जिनके घर हनुमान जी के वानरोचित किलोल में स्वाहा हो गए। खैर समय बदला और नए कोर्ट परिसर के निर्माण ने हनुमान जी की किस्मत भी चमका दी। फिर तो सालों तक जब भी दलसिंहसराय गया , हनुमान जी की देहरी पर एक बार जरुर से नजर मार लेता और हर बार हनुमान जी की को पिछली बार से बेहतर पाता।

खैर साल भर बाद जब इस बार दलसिंहसराय जाना हुआ तो दो-एक चीजों की ताजातरीन मौजूदगी पर खुशी के साथ-साथ गर्व करने को भी जी ललचाने लगा। पहली तो जैविक-अजैविक कचरों वाला कूड़ादान और दूसरा डीएसपी आवास के बाहर वाले मैदान में अग्निशमन गाड़ियों की मौजूदगी। इससे पहले ऐसा ही कुछ तब दिखा था, महसूस किया था, जब महावीर चौक पर नई-नई फ्लड लाइट उधर से गुजरने वालों को अपनी दूधिया रोशनी से सराबोर किए जा रही थी। फिर कुछ सालों बाद बिजली-ग्रिड के शुभागमन की खबर ने यह खुशी दोहरी-तिहरी कर दी।

कहते है कि इंसानों को परखना हो तो कपड़ों की बजाय जूते पर नजर डालिए। वैसे ही शहर-कस्बे की नब्ज जाननी हो तो नालियों और कूड़ाघरों से बढ़िया थर्मामीटर और क्या होगा !!! पता नही इनका कितना इस्तेमाल होगा ,लेकिन इतना तो तय है बदलाव के इन चिह्नों से नजर नही छिटकाया जा सकता। हो सकता है इन कूड़ेदानों की मौजूदगी हाथी के दिखाने वाले दांतों की तर्ज पर हो, लेकिन जड़ता से किसी भी अंदाज में दो कदम आगे बढ़ने की पहल सकारात्मकता तो लाती ही है। कुछ महीने पहले एक रिपोर्ट पढ़ी कि अफ्रीका के गरीब बच्चों के बीच कई लैपटॉप बांटें किए गए और आश्चर्यजनक रुप से तकनीक से अनजान बच्चों ने महज कुछ ही घंटों में न केवल उसे ऑन-ऑफ करना जान लिया ,बल्कि आगे के दिनों में लैपटॉप से जुड़े अन्य आयामों को एक्सप्लोर करने में भी सफल रहे ।

जैविक-अजैविक खांचो वाले कूड़ेदानों की मौजूदगी बरबस ही बीते दिनों की याद करने की वजह बनती महसूस हुई । फिलाटेली-न्यूमिस्मैटिक्स से जुड़ी प्रतियोगिताएं , क्विज आधारित मि. एंड मिस दलसिंहसराय का चुनाव , नव जागरण युवा मंच की सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धाएं, इकोलॉजी आधारित और दूसरी कई सारी क्विज कम्पीटीशंस , डे-नाइट क्रिकेट मैच , यूथ प्रोग्रेसिव क्लब की लाइब्रेरी आदि-आदि की याद उछल-उछल कर सिर में धम-धम धड़ाम-धड़ाम करने लगी।