सोमवार, 29 जुलाई 2013

कूपमंडूकता बनाम कूप

कल `द हिंदू` अखबार में दरभंगा के पोखरों की दुर्दशा का हाल पढ़ा तो अपने यहां यानि दलसिंहसराय के कुंओं की याद आ गयी। बचपन में बिताए दिनों के साथ कुंआ कुछ तरह इस तरह जुड़ा है, मानो शादी के बाद बहु के लिए नैहर यानि मायका। इन कुओं में कुछ मर गए और कुछ मरने-मरने को हैं।

जिंदगी में कुंओ का साथ कब पीछे छूट गया, समय की आपाधापी में पता ही नही चला। जब भी बचपन की याद आती है , कुंआ साधिकार यादों में विराजमान होता है। सुबह-सवेरे नहाने-धोने से लेकर सोने से पहले पैर धोने तक पानी का पर्याय कुंआ हुआ करता था। बचपन में किराए के जिस घर में मैं रहता था ,उस कुएं के मुंडेर पर मध्य तक घर की चहारदीवारी की दीवार थी। एक हिस्सा मकान की चहारदीवारी के भीतर और दूसरा चहारदीवारी के बाहर सड़क की ओर। मुहल्ले के दूसरे घरों में जिनके घर न तो कुंआ था या न ही नवआयातित चापाकल, वो इस कुएं से पानी भरा करते। कई बार राहगीरों को भी लोटे से रस्सी बांधकर इससे पानी निकालते देखा। यह वह दौर था जब पानी बोतलबंद नही हुई थी। लोग रस्सी से जुड़ा डोल (((((((बाल्टी) लाते और पानी भरकर अपने अपने घरों को ले जाते। (अभी कुछ दिन पहले ट्रेन से जबलपुर जा रहा था। एक ग्रामीण महिला बगल वाले सहयात्री से पीने के लिए पानी की मांग कर बैठी , सहयात्री का जवाब था- खरीदा हुआ पानी है , स्टेशन वाला नही है।) उस कुएं ने भी सालों पहले आखिरी सांस ले ली, उसकी कब्र पर मकान ने अपनी टांगें पसार ली हैं।

कुओं से जुड़ी अनगिन यादे हैं , और इनमें से कुछ दुखद भी ।कितने साल पहले की बात है,याद नही । पड़ोस के कुएं में ससुराल में सतायी जा रही बहू ने छलांग लगा ली। मोहल्ले के एक उत्साही युवक ने जैसे-तैसे कुएं से बाहर निकाला। खैर कुंए में यह उसकी पहली छलांग नही थी। जब-जब उसकी सहनशक्ति जवाब दे देती कुंए को ही वो अपना मुक्ति-श्रोत मान बैठती। खैर सालों बाद निरतंर सासुरालिक शोषण ने उसे शरीर-मुक्त कर दिया।वो कुंआ भी अब आखिरी सांसे ले रहा हैं। एक जमाना था जब प्रेम में असफल या उसको अंजाम तक पंहुचाने में विफल युवक-युवतियां कुएं में कूदकर अपनी जान दे देती थी। ( कुछ सालों पहले फिल्म `पेज थ्री` का गाना `कुंआ मा कूद जाउंगी` भी शायद इन्हीं घटनाओं से प्रभावित है)।

पढ़ाई के सिलसिले में पटना जाना हुआ। मुसल्लहपुर हाट, शाहगंज लेन में एक कमरा भाड़े पर रहने के लिए तय हुआ। धुप्प अंधेरें में बने उस कमरे के एक किनारे सीमेंट और मैनहॉल से ढ़का एक कुंआ पड़ा था, सालों से सांस लेने के लिए प्रतीक्षारत। खैर दो दिनों में वहां से भागा। संयोग से इस बार कुंआ नए वाले कमरे के सामने विराजमान था। वैसे नल भी बगल में उपस्थित था , लेकिन पानी सुबह-शाम कुछेक घंटे के लिए आता। यह कुंआ उन कुंओं में से आखिरी था , जिससे अब तक की जिंदगी में रिश्ता कायम हुआ ।

इन कुओं में से कुछ जमीन की जरुरत की भेंट चढ़ गए , कुछ जमीन की हवस के और कुछ की प्रशासनिक उदासीनता ने हत्या कर दी। नयी तकनीक ने इन कुओं को आउटडेटेड करार दिया और कुएं दिन-ब-दिन लाशों में तब्दील होने लगे । कहावत है हर किसी का एक वक्त होता है ...कह सकते हैं कि इन कुंओं का भी एक वक्त था।


पोस्ट स्क्रिप्ट-- जब भी बाल्टी रस्सी का साथ छोड़कर कुएं में रह जाती , हम बच्चें और मोहल्ले के खलिहड़ लोग मुंडेर पर डेरा जमा लेते। अगल-बगल के घरों से झग्गड़ मंगाया जाता और फिर निशानेबाजी का खेल तब तक चलता ,जब तक कि बाल्टी झग्गड़ की गिरफ्त में न आ जाए।

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