साल 1997,
इंडिया टुडे शायद कुछ महीने पहले ही पाक्षिक से साप्ताहिक हुई थी। नया-नया चस्का
लगा था। पीछे के पेज से शुरु कर आगे के कार्टून तक एक ही बैठक में निपटा देता था।
कभी खरीदकर तो कभी भाड़े पर। सात रुपये की मैग्जीन थी और भाड़े पर का चार्ज एक
रुपया। लेकिन इस सप्ताह शायद कुछ खास था। क्या था, पता नही। मार्केट से इंडिया टुडे सफाचट। बहुत ढ़ूंढ़ा , खोजबीन की, लेकिन इंडिया टुडे पहुंच से बाहर। बाद में पता
चला इंडिया टुडे के इस अंक ने सरकार गिरा दी।
साल 1999, अशोक
राजपथ पर हमेशा की तरह टंडेली में जुटा था। इधर से उधर , उधर से इधर। राजकमल प्रकाशन
वाली दुकान के नजदीक इंडिया टुडे के पुराने अंको के जखीरे पर एकाएक नजर गयी ।
सामने वहीं अंक नमूदार । दो रुपया देकर फटाक से उसको अपना बना लिया। दरअसल इंडिया टुडे के उस अंक में राजीव गांधी हत्याकांड पर जैन आयोग की रिपोर्ट लीक हुई थी
जिसकी तमाम इशारेबाजी में एक इशारा डीएमके की तरफ भी था। डीएमके पर रामो-वामो और
कांग्रेस के बीच जिच ने गठबंघन की गांठ को खोलकर रख दिया।
साल 2013, फन वीथ्रीएस में मद्रास कैफे देखी तो एकबारगी पुरानी यादें ताजा हो गयी। फिल्म
देखने से पहले काफी रिव्यू पढ़ा, दोस्तों के अपडेट पढ़ें । बहुत सारे लोगों ने कहा
कि बॉलीवुड पर फिर से भरोसा बना है। कुछ ने कहा सत्य के काफी करीब। कुछ विवाद भी
उठे, लिट्टे के चित्रण को लेकर। वैसे भी कुछ दिनों पहले बाकियों सहित दुर्घटना का
शिकार होने वालो में मैं भी था। चेन्नई
एक्सप्रेस की चपेट में न जाने कितने घायल , मूर्च्छित और हताहत हुए और जिस तरह की
लगातार रपटें आ रही हैं , उससे तो आप वाकिफ होगें ही। फिर भी शक-सुबहे पर भरोसे को
तरजीह देने का जोखिम मोल लिया ... और वैसे भी जॉन अब्राहम की मौजूदगी संदेह को
स्वाभाविक बना देती है।
हालांकि
समीक्षकों की सूक्ष्म और स्थूल नजर से लैस नही हूं, लेकिन फिल्म अपनी तमाम
आदतों-कुआदतों में से है। फिल्म काफी अच्छी लगी और सुजीत सरकार के साहस और हुनर का
खास तौर पर कायल हूं, जिन्होंने जॉन को फिल्म पर ज्यादती न करने दी।... लेकिन जहां
तक फिल्म के विषय से जुड़े तथ्यों की बात है फिल्म खुद-ब-खुद संदेह का धरातल तैयार
करती है। इंटरनेट को खंगाले तो तमाम तरह की रपटें मिलेंगी। जैन कमीशन की रिपोर्ट जिसने
सरकार गिरा दी, उसके निष्कर्ष मिलेंगें । यह फिल्म इन तथ्यों और निष्कर्षों पर
जुल्म करती नजर आती है, बेइंतहा जुल्म। लिट्टे के भारतीय कनेक्शन पर फिल्म चुप्पी
साध लेती है। कोलंबों भी भारतीय उच्चावास तक सीमित रह गयी दिखती है। दिल्ली भी
नौकरशाहों के माध्यम से ही चित्रित है। राजनीतिक चरित्रों की अनुपस्थिति खलती है।
एक बड़े और ज्वलंत मुद्दे पर बनी फिल्म यहीं आकर मात खाती दिखती है और संतुलन खो
देती है। केवल `फॉरेन कनेक्शन` के कुछ अस्पष्ट दृश्य और उच्चारण
इस असंतुलन को पाट नही सकते।
फिल्म का एक
गाना है- “निकला हूं सच की तलाश में , ये जग तो है माया तेरा “। अन्त में इतना
ही कह सकता हूं कि सच की तलाश में देखने आये दर्शकों को यहां माया ही हाथ लगेगी।
वैसे भी सच कभी अधूरा नही होता और न ही हो सकता है।
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