दोपहर के करीब
बारह बजे थे। चाय की दुकान सुबह की पहली शिफ्ट के बाद खर्राटें ले रही थी। निराशा-हताशा
के साथ वापस लौटने को था। अचानक सामने से एक लाश गुजरी। सारी सुस्ती के बावजूद
शरीर में बसे संस्कार ने मरोड़ ली , बिना किसी कोशिश के हठात ही हाथ प्रणाम की
मुद्रा में दंडवत था। फिर बड़े बूढ़ों का कहा याद आया। सुबह-सुबह लाश देखने से दिन
शुभ होता है। पता नही दिन के बारह बजे की गिनती सुबह में की जाय या नही , दिमाग के
किसी कोने में हलचल हुई। मुफ्त का माल बटोरने के लिए एकबारगी मस्तिष्क से तर्क
उपजा – शहर की सुबह तो वैसे भी बारह बजे से ही होती है।
चाय की सामयिक
खुराक के बिना आंतरिक कुलबुलाहट में उलझे तन-मन को सुबह की इस आखिरी यात्रा ने एक
और नयी उलझन दे दी। आखिर इतना चुप-चुप क्यों ? अर्थी अब गली के आखिरी छोर पर थी। कंधे
पर अर्थी लिए चार लोगों के अलावा मुश्किल से आधे दर्जन लोग और। सब के सब चुप। कहीं किसी कोने से `राम नाम सत्य है` की ध्वनि-प्रतिध्वनि नही । बचपन और किशोरावस्था के दौरान की तस्वीरें
मन-मस्तिष्क के सामने से गुजरने लगी। अपने या अगल-बगल के मुहल्ले या फिर किसी
रिश्तेदार की मौत होती तो लोगों की अच्छी खासी भीड़ जमा होती। न जाने कितनी बार
सिमरिया-चमथा हो आया हूं इस चक्कर में। फिर बांस का जुगाड़ होता और अर्थी बनाने
वाले कारीगर का। यहां तो खैर रेडीमेड चचरी तैयार मिलती है मानो किसी के मरने के
इंतजार में ही बैठी हो। अच्छी खासी संख्या में लोगों के साथ मृतक का आखिरी सफर
शुरु होता। जिनके साथ रिश्ते जीवित जीवित रहते भी ठीक नही होते वो भी ऐसे समय में
संवेदना प्रकट करने पहुंचते। एक-दो लोग किसी झोले में मखान और अल्यूमीनियम के पैसे
लिए होते। `राम नाम सत्य है` के नारे लगाए जाते और मखान-सिक्के
लिया हुआ शख्स उन्हें उल्टी दिशा में उछालता।
फिर लगा शहर में
इतना सब संभव कहां ? दस बजे तक सबको ऑफिस पहुंच जाना है। जरा सा देर हुए
नहीं कि बॉस की घुड़की। और बॉस भी बेचारा क्या करें उसे महाबॉस की घुड़की। ऊपर से
मंदी का समय। नौकरी पर वैसे ही आफत बनी है। कोई कितना रिस्क ले ?
अंतिम बार मशहूर
फिल्मकार मणि कौल के दाह संस्कार के समय दिल्ली के एक क्रीमेटोरियम गया था। ऑफिस से अपना ताम-झाम
समेट कर निकलने ही वाला था कि एसाइनमेंट डेस्क से वहां पहुंचने का आदेश हुआ। एम.ए.
के दिनों की बात है फिल्मकार कुमार साहनी एक दफा क्लास लेने आए । न्यू वेव सिनेमा
पर उन्होंने चर्चा की। मणि कौल के बारे में बताया । मणि कौल की दुविधा और कुमार
साहनी की माया दर्पण भारत में न्यू वेव सिनेमा की शुरुआत कही जाती है । लगा कि
काफी जमघट होगा । पहुंचा तो गिनती के लोगों को वहां पाया। जहां तक मुझे याद है
गिनती के दो दर्जन से ज्यादा लोग नही होंगें। फिल्म, नाटक जगत के कुछ लोगों के साथ
कुछेक रिश्तेदार । जब तक था, हमारे अलावा बस एक और चैनल का कैमरामैन ही दिखा।
दलसिंहसराय और
अगल-बगल के इलाके में अक्सर दाह-संस्कार के लिए चमथा या सिमरिया का रुख किया जाता।
हम बच्चों के लिए यह गम का कम, पिकनिक का समय ज्यादा होता। गंगा नदी के किनारे
दाह-संस्कार, फिर गंगा स्नान और तब नजदीक के झोपड़ीनुमा होटल में
पूरी-सब्जी-जिलेबी। गंगा किनारे बलुआही जगह पर हम बच्चें खूब धमा-चौकड़ी मचाते और
बड़े-बुजुर्ग बकैती करते। कुछ दाह-संस्कार के एक्सपर्ट होते , जिनकी निगरानी में
पूरी प्रक्रिया संपन्न होती। कुछ लोग पिछले श्राद्धों के जिक्र में जुटे होते तो
कुछ मोहल्ले और परिवार की पॉलिटिक्स में। कुछ तो जीवन-दर्शन में गुम हो जाते, देश-दुनिया तक को अपनी बतंगड़ी की जद में ले
आते। ... और हां आते-आते लोग सिमरिया से अन्नानास लाना नही भूलते।
दिल्ली और
दलसिंहसराय हालांकि अब भी करीब हजार किलोमीटर है लेकिन बीच की यह दूरी शायद एक
भ्रम ही है। ऐसे में सवाल है कि – अल्युमीनियम के वो सिक्के अब भी उछाले जाते हैं क्या
?
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