सोमवार, 23 सितंबर 2013

हर कब्र पर रखा पत्थर सफेद क्यूं हैं ?

अभी ज्यादा दिन नही गुजरे जब अमेरिका के पैट्रिक और कैथरीन रैडिक ने अपनी मां की मौत पर खुशी जाहिर की । अखबार में अपनी `श्रद्धां`जलि में उन्होंनें लिखा कि मां की मौत के बाद उन्होंने `डिंग-डौंग, द विच इज डेड` गाकर जश्न मनाया आपकी हमारी पहली प्रतिक्रिया  इस पर क्या होगी ?  शायद हम उन्हें मनोरोगी करार दें। हममें से अधिकांश लोग ऐसे होंगें जो किसी मृतक के दर्शनोपश्चात सीने पर दांया हाथ रखकर बुदबुदाते हैं कि भगवान इनकी आत्मा को शांति दें। फिर आखिर क्या वजह होगी इन रैडिक भाई-बहनों ने बकायदा अखबार में प्रकाशित करवाया कि उनकी मृत्यु पर हम जश्न मनाते हैं और दुआ करते हैं उनकी मां मौत के बाद के जीवन में हर उस दुख को झेले जो उनने अपने बच्चों यानि उन पर ढ़ाए। यह `श्रद्धां`जलि दरअसल इनके लिए इन पर ढ़ाए गए जुल्मों के बदले के समान था। पैट्रिक रैडिक के मुताबिक यह `श्रद्धां`जलि चाइल्ड एब्यूज के खिलाफ उनकी अभिव्यक्ति है। इस चर्चित `श्रद्धां`जलि की बात दुनिया भर में फैली। आखिर लिपे-पुते , ऑल वाज वैल मोड वाले श्रद्धांजलियों के प्रचलन के बीच यह अजूबे जैसा जो था।

इस श्रद्धांजलि ने कई प्रश्न भी खड़े किए हैं। किसी की मौत के बाद मूल्यांकन का तरीका क्या हो ? क्या इतिहास  पर चूने की सफेदी मार देनी चाहिए ? भले-बुरे, सही-गलत को एक ही तराजू से तौलना कितना सही है लीपा-पोती मार्का श्रद्धांजलि क्या बुराई को प्रोत्साहित नही करेगी और अच्छाई हतोत्साहित नही होगी ? और फिर ईमानदारी की मांग करते इस वैज्ञानिक समय में किसी के बारे में आखिरी विचार व्यक्त करते वक्त बेईमानी क्यूं बरती जाय ?

बीते साल की बात है, बाल ठाकरे जी गुजर गए। श्रद्धासुमन अर्पित करने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी। शवयात्रा कई चैनलों से लाइव टेलीकास्ट की गयी। मातोश्री से इंटरनेटी दुनिया तक लोग इस `महामानव` की दर पर मत्था टेकते नजर आए। लेकिन श्रद्धांजलियों के इस समंदर में इस इतिहास को मानो डुबो दिया गया कि किस तरह दक्षिण से लेकर पूरब तक के गरीब मजदूर-टैक्सीवाले-रेहड़ीवाले इनकी वजह से कष्ट झेलने को मजबूर होना पड़ा।

अभी कल ही की बात है। समाजवादी पार्टी के नेता मोहन सिंह इस दुनिया से कूच कर गए। कई लोगों ने उनकी ईमानदारी से लेकर उनकी समाजवादी शख्सियत के गुण गाए। लेकिन आप ही बताइए आय से अधिक संपत्ति का मामला हो या बेशर्म परिवारवाद का , रिटेल में एफडीआई पर मुहर हो या न्युक्लियर डील को समर्थन , जो शख्स इसके बावजूद भी नेताजी का अनुगामी या सहकर्मी रहा हो क्या उसका समाजवाद संदिग्ध नही हो जाता।

ऐसे में बड़ा सवाल है कि आखिर लीपा-पोती मार्का श्रद्धांजलि का यह दौर कब तक चलता रहेगा और ईमानदार मूल्यांकन की शुरुआत कब होगी।

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