सोमवार, 25 जून 2012

डाक-टिकट और पोस्टकार्ड

सालों बाद आज डाक-टिकटों से आमना-सामना हुआ, फिलाटेली एक्जीबिशन कवर करने गया था। लगा फिर से अपने मोहल्ले के उस पोस्ट-ऑफिस पहुंच गया हूं, जहां सालों पहले डाक-टिकट, पोस्टकार्ड, लिफाफा और अंतर्देशीय पत्र खरीदने जाता था। लाख मशक्कत की , समय को रिवाइंड मोड में डाला, स्मृति विलोप सा हो गया, याद ही नही आया कि अंतिम बार डाक-टिकट लिफाफे पर कब चिपकाया था । खैर उन दिनों सुरभि पर पूछे सवाल का जवाब हर हफ्ते भेजना अनिवार्य सा था। पहले पंद्रह पैसे का पोस्ट कार्ड खरीदा, फिर पच्चीस पैसे का और फिर मंहगे प्रतियोगिता पोस्टकार्ड । पचहत्तर पैसे का अंतर्देशीय पत्र मिलता था जो अब तो लुप्त सा ही हो गया है ।जिन लोगों को पोस्टकार्ड के खुलेपन से परहेज था, अंतर्देशीय खरीदते।लिफाफें भी अक्सर इस्तेमाल में आते, मैगी का लोगो कतर कर कंपनी के पते पर भेजते, कंपनी वालों के किसी छोटे-मोटे खिलौने के ऑफर के चक्कर में। ... और हां बैरन या बैरंग जो भी हो उसके आने पर लोगों को काफी कोफ्त होती, भेजने वाले की कंजूसी की लानत-मलामत करते दुगुना पैसा देकर उसे छुड़ाया जाता।... तकनीक संवाद के तरीके बदल रही है और ये डाक-टिकटें भी बचपन की मधुर स्मृति का हिस्सा बनकर रह गयी हैं। 

सुरभि की याद मानो बचपन को अतीत से ढ़केलकर आंखों के सामने खड़ी कर देती है... कार्यक्रम के अंत में अनाउंस किए जाने वाले टूर पैकेज और गिफ्ट हैम्पर हमेशा लुभाते रहे... आंखें अंत तक पोस्टकार्ड के ढ़ेर और कान सिदार्थ काक और रेणुका शहाणे की मधुर आवाज पर टिकी होती, इस उम्मीद से कि शायद इस बार मेरा ही नंबर आ जाए ... हालांकि खुद के लकी बनने की हसरत अधूरी ही रही... 

(06Nov2011)

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