सोमवार, 25 जून 2012

सत्यकाम

सालों पहले दूरदर्शन पर एक फिल्म देखी थी-सत्यकाम , धर्मेंद्र और संजीव कुमार अभिनीत। भ्रष्टाचार से संघर्षरत सत्यप्रिय आचार्य (धर्मेंद्र) कैंसर से जूझता मर जाता है। पूरी जिंदगी करप्शन से दो-दो हाथ करने वाला शख्स अपनी आखिरी घड़ी में फर्जी बिल पर अपने हस्ताक्षर कर दम तोड़ देता है। दृश्य मार्मिक है, रुला देना वाला। ये कहना कठिन सा है कि सत्यप्रिय आचार्य कैंसर से मरा या फिर करप्शन से। कैंसर अवेयरनेस डे पर एम्स का चक्कर लगाया तो फिल्म के आखिरी क्षणों के सत्यप्रिय आचार्य का चेहरा फिर से दिमाग में घूम गया । सालों तक लेख और भाषणों में कैंसर करप्शन के मेटाफर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा, हो सकता है कि इस मेटाफर के मूल में ऐसे ही दृश्यों को ख्याल में रखा गया हो। हालांकि समय के मुताबिक मेटाफर में भी तब्दीली आई और अब करप्शन एड्स सरीखा भी बताया जाने लगा है। दो चीजें हाल में देखने को मिली है, जहां कैंसर इन दिनों पड़ोस और परिवार के बीच बड़ी उपस्थिती दर्ज कराती दिखी है, वहीं करप्शन का मुद्दा भी बरास्ते जनपथ राजपथ पर हलचल मचाए हुए है। उम्मीद करनी चाहिए कि करप्शन और कैंसर दोनों को ही इनके खिलाफ चल रही लड़ाई में मात मिलेगी, ठीक उसी तरह जैसा कि सत्यप्रिय आचार्य के फर्जी दस्तावेज पर हस्ताक्षर और फिर मौत के बाद उसकी पत्नी अपने हाथों ही उस दस्तावेज को टुकड़े टुकड़े कर देती है। 

(7Nov2011)

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