सोमवार, 25 जून 2012

मास और क्लास

कहते हैं दुनिया दो हिस्सों में बंटी है- मास और क्लास, कल्चर और टेस्ट के मामले में। जब अपने कस्बे में था तो वहां के चारों थिएटरों में मिथुन की या फिर जलती और चढ़ती जवानी टाइप फिल्में लगी रहती थी , दिल्ली आया तो पता लगा कि ये तो बी और सी-ग्रेड सिनेमा है। हालांकि श्याम बेनेगल, गोविंद निहलाणी के नाम से परिचय पहले भी था, लेकिन कुमार साहनी जब राजनीति और फिल्मों के घालमेल पर पढ़ाने आए तो न्यू वेव सिनेमा के नाम से भी परिचित हुआ। पता चला ये क्लास टाइप मामला है। उन्होंने एक अपुष्ट कहानी सुनायी कि कैसे मनमोहन देसाई ने उनकी फिल्म कुछ देर देखने या कहें झेलने के बाद टीवी के स्क्रीन पर अपना गुस्सा उतारा। तमाम लोगों से सुनने को मिला कि सलमान ज्यादा मास के और आमिर ज्यादा क्लास के करीब है। फिर कॉमर्शियल, ऑफबीट और आर्ट सिनेमा की शब्दावली से देर-सवेर परिचित होता रहा। क्लास और मास की छवि मेरे मन-मानस पर बहुत इन्हीं के जरिए अंकित हुई। वैसे राजनीति विज्ञान में सत्ता को मद्देनजर रखते हुए एक ऐसा ही वर्गीकरण है - इलीट और सब-अल्टर्न , बुर्जुआ और सर्वहारा। हालांकि मोटा-मोटी माना जा सकता है कि मास और क्लास के ये खांचें तथा इलीट और सब-अल्टर्न वाले खांचे काफी कुछ एक दूसरे को ओवरलैप करते हैं। रॉकस्टार फिल्म देखी तो दिलो-दिमाग पर एक कंफ्यूजन तारी हो गया। लगा फिल्म न मास के लिए हो सकी , न क्लास के लिए, हालांकि मास और क्लास दोनों के लिए टुकड़ो- टुकड़ों में काफी कुछ था। अच्छी लगी या अच्छी नही लगी के बीच मन झूलने लगा, मन में अजीब सी खिचड़ी पकने लगी, ठीक वैसी ही जैसी खिचड़ी इम्तियाज अली ने भूत, वर्तमान, भविष्य को मिलाकर पकायी है। कब कौन सा काल, समय उपस्थित हो जाए, अंदाज लगाना नामुमकिन हो जाता है। मास के क्लास में शामिल होने की जिद हो या क्लास के अपने दायरे से बाहर गंध फैलाने की दबी हुई कामना ..., जनार्दन के जिम हैरिसन बनने की हसरत और हीर के जलती जवानी देखने की ख्वाहिश मास और क्लास के खांचों के इंसानी बुनावट होने का एलान सा करती हुई दिखती है । मास और क्लास ने न जाने क्यों जेहन को जकड़ सा लिया, शायद इसलिए कि जमुनापार में फिल्म देख रहा था और जमुनापार की हंसी उड़ी थी फिल्म के एक दृश्य में। वैसे लगता है इम्तियाज अली अभी भी अपने कॉलेज के जमाने से निकल नही पाए हैं। न तो जमुना पहले जैसी रही और न जमुनापार। रॉकस्टार से जुड़ी कई रिपोर्ट और पोस्ट पढ़कर गया था, बहुत सारी उम्मीदें लिए। फिल्म उन बढ़ी हुई उम्मीदों पर खरा नही उतर पायी। हालांकि रणबीर जब भी जॉर्डन के चोले में दाखिल होते हैं, उनके दिलो-दिमाग के भीतर का शोर अपना सा ही लगने लगता है। अस्त-व्यस्त और बेतरतीब से रणबीर जब मंच पर गिटार बजाते हैं तो मानो दृश्य में जान फूंक देते हैं। ऐसे में माकूल गीत और संगीत दोनों ही खासा असर छोड़ती है ।
पोस्ट-स्क्रिप्ट— शादी से पहले हीर जब अपने गंध फैलाने के मिशन पर निकलती है तो सु-सु करते हुए लोगों को परेशान करने के साथ टिंग लिंग लिंग लिंग बजना शुरु हो जाता है और फिर कतिया करूं , कतिया करुं। मेरी भाषा उतनी समृद्ध नही है , लेकिन टिंग लिंग लिंग और सु-सु करते लोगों को तंग करने की फिट बैठती टाइमिंग से आखिर क्या अर्थ और भाव निकाला जाए ??? 

(13Nov2011)

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