मंगलवार, 4 सितंबर 2012

काश कोई कर्जन की सुन लेता !!!

नवीं की इतिहास की किताब के बाद लॉर्ड कर्जन से मेरा साक्षात्कार पटना के अशोक राजपथ पर हुआ। 1998 की गर्मिंयों की चिलचिलाती धूप थी , फिर भी पटना घूमने का खुमार सर पर था। काली घाट की गली से निकल कर आगे बढ़ा तो खुदाबख्श खां लाइब्रेरी की तरफ मुड़ गया ... नाम काफी सुन रखा था । पांडुलिपि किस चिड़िया का नाम है , तब तक इससे अपरिचित था , लेकिन इतना पता था कि खुदाबख्श खां लाइब्रेरी पांडुलिपियों का बड़ा संग्राहलय है । लेकिन दरबान ने दरवाजे से वापस चलता कर दिया , कहा केवल शोधार्थियों के लिए है। भला हो कर्जन साहब का , जब खुदाबख्श खां साहब से निराश लौटा तो वही कोने में कर्जन रीडिंग रुम ने किनारा दिया। भीतर पहुंचा तो लगा मन की मुराद मानो पूरी हो गयी। दसियों अखबार , और दर्जनों पत्र-पत्रिकाएं देशी-विदेशी ... लगा स्वर्ग कहीं है तो यही हैं। उपर से एयर कूलर की ठंडी-ठंडी हवा और कूलर का ठंडा ठंडा पानी। कर्जन साहब के लिए श्रद्धा का भाव उमड़ आया। खैर आगे के तीन साल गाहे-बेगाहे जाता रहा , कभी गर्मी से बचने तो कभी टाइम, न्यूजवीक और टेलीग्राफ , स्टेट्समैन टटोलने। टाइम और न्यूजवीक जैसी पत्रिकाएं पहली-पहली दफा वहीं छूने-देखने को मिली। खैर साल दर साल गुजरे ... बीएचयू , हिंदू कॉलेज , आईआईएमसी के बाद पत्रकारिता का दौर शुरु हुआ।... कर्जन साहब सालों भर बाद फिर याद आए।
                                                 
शिलापट्ट
कवरेज के सिलसिले में अक्सर दिल्ली के टोडापुर , पूसा कैंपस (इंडियन कांउसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च) जाना होता। भव्य ऑडिटोरियम , कृषि और नयी तकनीकों पर बहस करते देशी-विदेशी वैज्ञानिक-विशेषज्ञ और भविष्य के नीति-नियमों पर चर्चा के बीच बरबस लॉर्ड कर्जन की याद आ जाती । मन का एक कोना कह उठता कि काश कर्जन की कोई सुन लेता , उनकी बातों पर कान देता। समस्तीपुर का हूं और राजेंद्र एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी पूसा हमारे जिले में ही है। मन में ख्याल आता कि कर्जन की आपत्ति पर गौर फरमाया जाता तो पूसा समस्तीपुर से दिल्ली के सफर पर न निकल पाता।

फिप्स लैबोरेट्री (मुख्य भवन)
ये कहना काफी मुश्किल है कि कृषि प्रधान बिहार और भारत के पूर्वी इलाके ने इससे कितना नुकसान उठाया। प्रीजंपटिव लॉस के आकलन के इस जमाने में शायद ही हम इस रकम का अनुमान कूत पाए। खैर बात यह थी कि साल 1905 में लॉर्ड कर्जन साहब ने एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट एंड कॉलेज के भवन की बुनियाद पूसा, समस्तीपुर में रखी और उम्मीद जतायी कि इसके कृषि केंद्र बनने के साथ बिहार-बंगाल की बेहतरी के अलावा पूरे देश भर का फायदा होगा। उसी साल भारत से अपनी विदायी तक वो पूसा प्रोजेक्ट के हर पहलू पर बारीकी से निगाह रखते रहें। हांलाकि पूसा के मुख्य भवन फिप्स लेबोरेट्री के आर्किटेक्चर से वो असहमत थे । साल 1934 के विनाशकारी भूंकप में ये भवन ढ़ह गया और बिहार से इस प्रतिष्ठित संस्थान (इंपीरियल स्टेटस प्राप्त ) के बाहर की और कूच करने की बड़ी वजह बना।
भूकंप के बाद पूसा से दिल्ली स्थानांतरण की तस्वीर
अब थोड़ा और पीछे जाया जाए... इंपीरियल गेजेटियर ऑफ इंडिया के मुताबिक दरभंगा (तब समस्तीपुर जिला नही था ) के पूसा में 1350 एकड़ की खेती की जमीन ईस्ट इंडिया कंपनी ने सेना के घोड़ों को बेहतर चारा उपलब्ध कराने के लिए अधिग्रहित की। बड़ी संख्या में इंपोर्टेड घोड़ों की, ग्रंथियों की बीमारी की वजह से मौत के बाद घोड़ों को यहां से दूसरी जगह ले जाया गया। फिर जमीन लीज पर तंबाकू कंपनी सदरलैंड एंड कंपनी को मिली लेकिन साल 1897 में इस कंपनी ने भी जमीन खाली कर दी। लगभग इसी समय वायसराय लॉर्ड मेयो भारत में कृषि महानिदेशालय और बीज-तकनीक-पशुपालन के क्षेत्र में बेहतरी के लिए एक योजना पर लगे थे और ब्रिटिश विशेषज्ञ जे ए वालकर ने उनके निर्देश पर भारत में कृषि के विकास पर एक डिटेल्ड रिपोर्ट तैयार की थी। हालांकि इस मामले में तेजी कर्जन के वायसराय बनने के बाद आयी , जिन्होंने नागपुर मुख्यालय के तहत जे मालीसन को कृषि महानिरीक्षक नियुक्त किया। इस बीच पशुओं के स्तर में बेहतरी के लिए तत्कालीन बंगाल सरकार ने पूसा में मॉडल पशुपालन केंद्र का प्रस्ताव रखा और जिसे मंजूरी भी मिल गयी। गौरतलब है कि पूसा के नजदीक दलसिंहसराय में इंडिगो रिसर्च सेंटर था , जहां काफी संख्या में ब्रिटिश प्लांटर्स थे। लेकिन पूसा की किस्मत में अभी इससे ज्यादा कुछ था। साथ में यह भी बताता चलूं कि लॉर्ड कर्जन की पत्नी अमेरिका के रईस परिवार से थी और अमीर अमेरिकी हेनरी फिप्स से उनके परिवार के गहरे ताल्लुकात थे। कर्जन दंपति फिप्स के अक्सर होने वाले भारत यात्रा पर आतिथ्य का भार निभाते और इसी दरम्यान फिप्स ने करीब 30 हजार डॉलर के अनुदान का प्रस्ताव कर्जन को दिया। खैर तब तक मालीसन के नेतृत्व वाली विशेषज्ञ समिति ने एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर के लोकेशन के लिए पूसा के नाम पर मुहर लगा दी। वायसराय ने पूसा में एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर और कॉलेज के लिए प्रस्ताव ब्रिटिश कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेज दी। इंडिगो प्रोजेक्ट पर काम कर रहे बी कोवेंट्री ने 1 अप्रैल 1904 को पहले निदेशक के रुप में पदभार संभाला। हालांकि पूसा के मूल प्लान की जगह नए प्लान के मुताबिक अब चार क्षेत्रों में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा की प्रावधान हुआ और इसके अलावा कई कम अवधि वाले पाठ्यक्रम भी तय हुए। 1908-09 में यहां से छात्रों का पहला बैच पढ़ाई पूरी कर निकला। सन 1918 में पूसा संस्थान को इंपीरियल स्टेटस दिया गया और फिर यह इंपीरियल एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के रुप में मशहूर हुआ। 1934 का भूकंप बिहार और इस संस्थान के लिए तबाही लेकर आया। संस्थान की मुख्य इमारत फिप्स लैबोरेट्री ढ़ह गयी। अगल बगल के इलाके में नौलखा के नाम से मशहूर फिप्स लैबोरेट्री दो तल्ले की शानदार महलनुमा इमारत थी जो अभी के सुगरकेन रिसर्च इंस्टीट्यूट की जगह पर थी और जिसकी बनावट पर कर्जन महोदय को संदेह था।फिर यह संस्थान 1935 में दिल्ली ले जाया गया और 1936 के अंत तक दिल्ली के उत्तर पश्चिम में टोडापुर इलाके में काम करने लगा। 

पोस्टस्क्रिप्ट—सालों बाद बिहार सरकार ने दो लाख पांच हजार की रकम देकर पूसा एस्टेट खरीद ली , हालांकि इसका एक हिस्सा अभी भी केंद्र सरकार के पास है , जो दिल्ली के मुख्य केंद्र के रिसर्च स्टेशन के रुप में काम कर रहा है। पूसा को फिर अहमियत मिली 1970 में , जब यहां राजेंद्र एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटि की स्थापना हुई।

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