ईस्ट ईंडिया कंपनी का दूत टॉमस रो जब अपने
भारत प्रवास पर था तो मुगल-मल्लिका नूरजहां के भाई आसफ खान ने उसके सम्मान में
दावत दी । टॉमस रो के साथ ही यात्रा कर रहे एडवर्ड टेरी ने अपने यात्रा-वृतांत `अ वोएज टू ईस्ट
इंडिया` में इस दावत का
खास तौर पर जिक्र किया है (टेरी के ही मुताबिक यह टॉमस रो साहब का इस टाइप का
इकलौता सम्मान था)। भांति-भाति के रुप-रंग के चावल से बने व्यंजनों और
मुर्ग-मुसल्लम के बीच आलू भी इस दावत में उपस्थित था । इसके अलावा टेरी ने अपनी
किताब में भारत के भारत के उत्तरी इलाकों में सेव और नाशपाती की विभिन्न किस्मों
के अलावा गाजर और आलू की हाजिरी पर भी हामी भरी है। भारतीय इतिहास में आलू का यह
शायद सबसे पुराना जिक्र है।
पता नही कितने `राष्ट्रवादियों` की भावना इससे
आहत हो जाए, लेकिन सच यही है कि आलू की नस्ल भारतीय नही है । यह बिल्कुल उसी तरह
अपनी है, जिस तरह गांधारी, हेलेना और न जाने कितनी बहुएं हमारे यहां आयी और हमारे
सेक्यूलर नेचर ने उन्हें अपना बना डाला।... आलू का आगमन भारत में पूर्तगालियों के आवागमन के दौरान हुआ, जिन्होंने सबसे पहले इसे भारत के पश्चिमी
किनारे पर उगाया, जहां इसे बटाटा कहा जाता था। खैर इस पोस्ट का मकसद आलू की
हिस्ट्री-ज्योग्राफी-सोशियोलॉजी का बखान नही है, असल मकसद इसके पटना-कनेक्शन से
है।
बिहार सहित भारत का पूर्वी छोर वो इलाका
है जहां सरकार इन दिनों हरित-क्रांति-2 के लिए कमर कस रही है। आबादी जहां दिन-दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से
उफन रही है और डेवलपमेंट की मानो आंखें फूटी हुई है । बीमारू राज्यों का भी सबसे बीमार हिस्सा। हालांकि आशीष
बोस के दिए इस शब्द से इन दिनों परहेज किया जा रहा है । कभी-कभी लगता है कि आखिर
विकास इनकी चौखट तक आते-आते क्यों हांफने लगता है ? फौरी तौर
पर कभी अपनों को तो कभी औरों को गरिया-गलिया कर तेजी से वाष्पित होते दिमागी तरल
पर लगाम लगा दी जाती है , लेकिन कभी-कभी दिमागी रिएक्टर के तीव्र वाष्पीकरण पर भारी-जल औऱ ग्रेफाइट वाले पुराने नुस्खे असरहीन
से होते लगते हैं। ऐसे में यदि अतिवादी ख्याल आ जाए कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़झाला
है तो मुझे लगता है कि मुझे माफ किए जाने की जरुरत है। उन तर्कों-तथ्यों को जुटाकर
मन को शांत करने की कोशिश करता हूं कि इसके बदतर वर्तमान के पीछे अतीत में इसके
साथ का सौतेला बर्ताव है।
खेती से प्राण पाते इस इलाके से आईएआरआई
के स्थानांतंरण का जिक्र तो पिछले पोस्ट में कर चुका हूं , लेकिन इस बार जिक्र साल
1949 में पटना से अपने सफर की शुरुआत करने वाले सेंट्रल पौटेटो रिसर्च इंस्टीट्यूट
यानि केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान की । पटना में 10 एकड़ जमीन पर बैरक समान एकतल्ला
इमारत में इस संस्थान ने अपनी आंखें खोली , लेकिन अब अपने जवानी के दिनों में हिल
स्टेशन शिमला की पहाड़ियों पर बैठा है। साल 1956 में अनुसंधान की जरुरतों का हवाला
देकर इसे शिमला रुखसत कर दिया गया।
हुआ यूं कि 1935 तक आलू की प्रजातियों को विकसित करने पर कोई जोर नही था और तब तक आलू की पैदावार बढ़ाने के लिए विभिन्न किस्म की विदेशी प्रजातियों का भारत में आयात किया।
1934 में इंपीरियल एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट , पूसा (समस्तीपुर) के तत्कालीन निदेशक डॉ एफ जे एफ शॉ के इस संबंध में विशेष प्रयास को ब्रिटिश सरकार ने 1935 में मंजूरी दी। साल
1935 में शिमला में आईएआरआई, समस्तीपुर के निर्देशन में पोटेटो ब्रीडिंग स्टेशन की शुरुआत हुई और फिर कुमाऊं की पहाड़ियों में भुवाली और शिमला की
पहाड़ियों में कुफरी में बीज अत्पादन कैंद्र खोले गए। साल 1945 में भारत सरकार के
कृषि सलाहकार सर हर्बर्ट स्टीवर्ड ने सेंट्रल पौटेटो रिसर्च इंस्टीट्यूट के अवतरण
का खाका खींचा गया और फिर 1946 में इसे जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी डॉ एस
रामानुजम को मिली। लगभग तीन सालों के बाद अगस्त 1949 में पटना में इस संस्थान ने
आकार लिया। एस रामानुजम इस नए-नवेले संस्थान के पहले निदेशक बने। आई ए आर ए के तहत
काम करने वाली शिमला की पौटेटो ब्रीडिंग स्टेशन , कुफरी का सीड सर्टीफिकेशन स्टेशन
और भुवाली की पौटेटो मल्टीप्लीकेशन स्टेशन को इसके तहत लाया गया। 1952 तक मैदानी इलाके में इसके 16
और पहाड़ी इलाके में 10 केंद्र खुल चुके थे। हालांकि इसे बिहार का दुर्भाग्य ही कहिए कि साल 1956 में इस संस्थान का
ट्रांसफर शिमला कर दिया गया। हालांकि अभी भी पटना में शिमला के मुख्य संस्थान के
अधीन एक रिसर्च स्टेशन काम कर रहाहै।
सेंट्रल पौटेटो रिसर्च स्टेशन , पटना |
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