5 सितंबर आते ही
उन्माद सा आ जाता है। गली की मुंडेर पर मास्टर साहब को ढ़ेला मारने को तैयार रहने
वाले छात्र भी मुंह में घास दबाए नजर आते हैं। तंबाकू मलने वाले मास्टर से लेकर व्यापारिक
बुद्धि वाले टीचर भी गुरुदेव की मुख-मुद्रा धारण कर लेते हैं। हाथ चौबीसों घंटे आर्शीवाद
की मुद्रा में होता है और चेहरा-आंखें मौसमी नरमी और नमी की चपेट में आ जाते हैं। एकबारगी
किसी को भी लग सकता है कि पूरा भारत गुरुकुल में बदल गया है। बस जंगलों और
पशु-पक्षियों की जगह बिल्डिंगें उग आयी हों। लेकिन संस्कार की इस सतह को थोड़ा
छीलिए तो लगेगा कि मामला चोंचलेबाजी ज्यादा है , हकीकत कम ।
वैसे मन तो कल
ही चुलबुला रहा था कि अपने कुछ `महान` गुरुजनों को याद किया जाय। लेकिन क्या किया, इच्छा
बाकियों की तरह सामाजिक संस्कारों की भेंट चढ़ गयी। हांलाकि जहां तक कुछ सीखने की
बात है ,तो इन महान मास्टरों का भी योगदान कुछ कम नही है। अनुभव और कल्पना-शक्ति
दोनों ही समृद्ध हुई हैं , इससे कोई इंकार नही है।
कुछ दिनों पहले
की बात हैं। राजनीति-विज्ञान के हमारे एक मास्टर साहब थे जिन्होंने भारतीय
संस्कृति की रक्षा का जिम्मा अपने कंधों पर उठा रखा है। अब भारतीय सभ्यता-संस्कृति
तो महान ठहरी , ऐसे में टीचरी लगभग पार्टटाइम मामला था उनका । चेहरा देखने को तरस
जाते थे विद्यार्थी। कुछ दिनों पहले
उन्होंने संस्कृति की रक्षा को समर्पित एक अपडेट किया। पूर्व-छात्र ने मौका अच्छा
समझा और गरियाया कि क्लास करने तो आते नही थे , चले हैं संस्कृति की रक्षा करने।
गुरुदेव ने झट से कमेंट डिलीट किया कि छात्र का यह कमेंट भारतीय परंपरा-संस्कृति
को दूषित न कर दे।
अब इतिहास की
चर्चा कर रहा हूं तो इतिहास के अपने एक मास्टर साहब का जिक्र कर ही दूं। मध्ययुगीन
इतिहास का चैप्टर शुरु होता और वह मास्टर साहब इतिहास में बिला जाते। चेहरा लाल हो
जाता , बॉडी का ब्लड-सर्कुलेशन तीव्र हो जाता । शिक्षक कम , संजय की भूमिका ज्यादा
निभाते दिखते। ... एक तरफ मुगलों की विशाल सेना थी , दूसरी तरफ मुट्ठी भर राजपूत,
लेकिन उत्साह की कोई कमी नही। राजपूतों की तलवारें चमक रही थी। भीषण युद्ध हुआ।
हजारों हजार की संख्या में लोग लड़े , लाखों मरे , करोड़ों घायल गुए। और आप ही
बताइए जब गुरु-चेला दोनों लड़ाई के मैदान में प्राणपण से घुस गए हो तो मैथमेटिक्स
की मौत तो तय है।
अब बात एक और मास्टर साहब की । मास्टर साहब राजपूत थे और एक बेटी के बाप भी। छात्रों में से पहले राजपूत छांटते और फिर दामाद कि फलां उनकी बेटी पर फिट बैठेगा कि नही।... ऐसा हुआ कि एक दिन एक लड़का उनको जंच गया। सुदर्शन व्यक्तित्व और उज्जवल भविष्य से परिपूर्ण । लेकिन एक खटका था। लड़के का आना जाना एक दूसरे मास्टरनी साहिबा के यहां था , जिनकी भी एक बेटी थी। हालांकि मास्टरनी साहिबा जाति से राजपूत नही थी, लेकिन उनका चित हमेशा चिंतित रहने लगा । जब चिंता बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो एक दिन लड़के को उन्होंने बुलाया। बेटी दोनों को चाय देने के लिए आई। बेटी के प्रस्थान पश्चात मास्टर साहब ने सवाल पूछा- पसंद है कि नही। लड़का न हां, न ना। तड़ से मास्टर साहब इतिहास में मानो विलीन से हो गए और थर्ड पर्सन के चोले में कहा- देखो बेटा ! राजपूत लड़के एश तो सब जगह करते हैं लेकिन शादी राजपूत में ही करते हैं। ( क्रमश: )
बहुत शानदार। शब्दों का गुण-भाग यूँ ही चलता रहा तो बाज़ीगरी भी सबको जल्द ही नज़र आने लगेगी। लगे रहो।
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